श्लोक : कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

श्लोक:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

विवरण: यह श्लोक 'भगवद गीता' के द्वितीय अध्याय के 47 वें श्लोक से है और इसका भावार्थ है कि मनुष्य का कर्तव्य केवल कर्म करना है, परन्तु उसे कर्मफल की चिंता नहीं करनी चाहिए। कर्मफल पर आसक्ति से बचकर व्यक्ति को अपने कर्मों में ही लिप्त रहना चाहिए। यहाँ कर्मफल के बिना कर्म का महत्व और कर्मों की सही नीति का उपदेश किया गया है।

इस श्लोक में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' भाग्यविधाता के उपहार को स्वीकारने में मनुष्य का कर्तव्य है और 'मा फलेषु कदाचन' कर्मफल की चिंता नहीं करनी चाहिए। 'मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि' कर्म करने का सही दृष्टिकोण यह है कि व्यक्ति को केवल कर्म करने में ही लगाव हो, कर्मफल की आसक्ति नहीं।

यह श्लोक जीवन के विभिन्न पहलुओं में सहायक है, जैसे कि कर्म में निष्ठा बनाए रखने, सही मार्ग पर चलने, निष्कलंक योग का अनुसरण करने आदि में। यह धार्मिक और नैतिकता से भरपूर संदेश देने वाला एक महत्वपूर्ण श्लोक है।