भगवद गीता में अहंकार और निरहंकार

भगवद गीता, जो मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उच्चतम तत्त्वों का विवेचन करती है, इसमें अहंकार और निरहंकार के विषय में महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत करती है।

1. अहंकार का वर्णन:
गीता में अहंकार का विस्तृत वर्णन है, जिसमें यह बताया गया है कि अहंकार एक व्यक्ति को अपने आत्म-मानव भावनाओं में बढ़ता है, जिससे उसकी सतत इच्छा और अभिमान की उत्पत्ति होती है।

2. निरहंकार का सिद्धांत:
गीता में निरहंकार का सिद्धांत है, जो व्यक्ति को अपने आत्मा के अद्वितीय स्वरूप में समझने का प्रेरणा देता है। यह व्यक्ति को अपने कर्मों में समर्पित और विनम्र बनाए रखने की आवश्यकता को समझाता है।

3. अहंकार की समस्याएं:
भगवद गीता में अहंकार की समस्याओं पर चर्चा है। यह बताती है कि अहंकार से उत्पन्न अभिमान और अधीनता की स्थितियाँ व्यक्ति को संसार में बंधन में डाल सकती हैं।

4. निरहंकार का मार्गदर्शन:
गीता में निरहंकार का मार्गदर्शन है, जो व्यक्ति को अपने कर्मों को निष्काम भाव से करने की अद्वितीयता में मार्गदर्शन करता है। यह व्यक्ति को स्वार्थ के बिना निर्लिप्त बनाए रखने का सुझाव देता है।

5. कर्मयोग में अहंकार का समापन:
गीता में कर्मयोग के माध्यम से अहंकार का समापन होने का उपाय बताया गया है। यह कहती है कि कर्मों को ईश्वर के लिए करने से अहंकार की समस्याएं समाप्त होती हैं और व्यक्ति निरहंकार बनता है।

6. आत्म-समर्पण का उदाहरण:
गीता में आत्म-समर्पण के उदाहरण द्वारा यह दिखाया गया है कि जब व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर के लिए समर्पित करता है, तो उसमें अहंकार की भावना कम होती है और वह निरहंकार बनता है।