कर्मयोग और समर्पण: भगवद गीता का संदेश

भगवद गीता, मानव जीवन के उद्दीपन का अद्वितीय स्रोत है जो कर्मयोग और समर्पण के माध्यम से जीवन को सफलता और आत्मा की पूर्णता की दिशा में प्रेरित करती है।

1. सकाम कर्म से निःसकाम कर्म की दिशा:
गीता का सुबोध उपदेश है कि कर्मयोग में सकाम कर्म से बाहर निकलकर निःसकाम कर्म का अनुष्ठान करना है। यह उपदेश सिखाता है कि कर्मचारी को अपने कर्मों को आत्मा के समर्पण में उदासीनता और आत्म-निवेदन के साथ करना चाहिए।

2. समर्पण का महत्व:
भगवद गीता में समर्पण का अत्यंत महत्व है। समर्पण से मतलब है कि कर्मचारी को अपने कर्मों को भगवान के समर्पण में करना चाहिए, और फल की चिंता में नहीं पड़ना चाहिए। यह बताता है कि कर्मयोगी अपने कर्मों को समर्पित भाव से करता है, जिससे उसका मन परमात्मा में एकरूप हो जाता है।

3. कर्मयोग में सहज सहानुभूति:
गीता भारतीय सांस्कृतिक साहित्य में सहज सहानुभूति की बात करती है। समर्पण और कर्मयोग के माध्यम से व्यक्ति अपने कर्मों को निष्काम भाव से करता है, जिससे उसमें सांस्कृतिक सहानुभूति और सद्गुण विकसित होते हैं।

4. समर्पित जीवन का मूल्य:
भगवद गीता का सन्देश है कि समर्पित जीवन, सत्य, नैतिकता, और आत्मा के साथ एक अद्वितीय संबंध की अद्वितीय महत्वपूर्णता है। यह बताता है कि समर्पण के माध्यम से ही व्यक्ति असली सुख और आत्मा की शांति प्राप्त कर सकता है।

5. आत्मा के साथ संबंध:
कर्मयोग और समर्पण के माध्यम से भगवद गीता हमें आत्मा के साथ संबंध स्थापित करने का उपाय प्रदान करती है। यह बताती है कि अगर हम अपने कर्मों को निष्काम भाव से करें और उन्हें ईश्वर के समर्पण में करें, तो हम अपने आत्मा के साथ एक हो जाते हैं।

इस प्रकार, "कर्मयोग और समर्पण: भगवद गीता का संदेश" हमें यह सिखाता है कि जीवन को सफलता और पूर्णता की दिशा में बदलने का राज़, सकामता से मुक्त होकर समर्पण में छिपा हुआ है। इसे अपनाकर ही हम असली सुख और आत्मा की शांति का साक्षात्कार कर सकते हैं।